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  लघुकथाएँ - देश - भगीरथ परिहार
तीर्थ यात्रा

सुबह होते ही वह फ़टाफ़ट तैयार होने लगे। ‘‘सर्दी है ज़रा पानी गरम कर देना, मेरे कपड़े निकाल देना, मैं जब तक नहाकर आता हूँ, तुम चाय तैयार रखना, देखना मुझे देर न हो जाए।’’ वे पत्नी को हिदायत दे रहे थे।
पत्नी बड़ी असमंजस में थी। कल से तुम रिटायर हो गए हो, अब वहाँ जाकर क्या बेगार करोगे। सारी जि़न्दगी झोंक दी दिल नहीं भरा क्या; जो आज अल्लसुबह नहा–धोकर तैयारी करने लगे। अब तो चैन लेने दो।
‘‘मैं तो भूल ही गया था, चलो आज से तुम्हें भी कुछ आराम ही रहेगा।’’
‘‘क्या खाक आराम रहेगा।’’ पत्नी रसोई से निकलकर आँख मसलने लगती है। ‘‘निगोड़ी आग भी नहीं लगती, अब तो लगता है इन फेफड़ों में दम ही नहीं रहा।’
‘दम कहाँ से रहेगा फूँकते– फूँकते पैंतीस बरस हो गए हैं। अब मुझे जल्दी क्या है अपने आप लगेगी।’’
चूल्हा–चौका, बरतन–कपड़े करते–करते पीठ धनुष–सी हो गई है। मगर इस उमर में आराम से एक कप चाय भी नसीब नहीं। जवानी बच्चे को जनने, उनके हगने–मूतने में साफ़ करते बीत गई। हारी–बीमारी में उनके पैताने बैठी रही। न दिन देखा, न रात। खटती रही कि ये मेरे अपने हैं। आज उनका ध्यान रख रही हूँ तो ये कल मेरा ध्यान रखेंगे।
‘‘क्यों कोस रही हो अपने आपको? सारे किए पर क्यों पानी फेरती हो? बच्चे क्या घर में ही बैठे रहेंगे! कमाँएगे नहीं तो खाएँगे क्या।’’
थोड़ी देर में पत्नी दो कप चाय ले आई। ‘‘अब आराम से बैठकर चाय पियो।’’
वे जीवन भर अपनी इच्छाओं पर पानी डालते रहे कि अभी बच्चों का भविष्य देखना है, इच्छाएँ तो बाद में पूरी की जा सकती हैं। फिर इच्छाओं का क्या? ये तो घास की तरह उगती रहती हैं।
‘‘आप कह रहे थे कि रिटायर होने के बाद तीरथ करने चलेंगे। लो अब वो समय भी आ गया है। अबकी तुम्हारी एक नहीं चलने दूँगी। दमड़ी समेटते–समेटते जीवन बिता दिया, कोई धरम–पुन्न नहीं किया। कोई तीरथ नहीं किया। शंभू को लिख दो कि छुट्टी लेकर आ जाए और हमें तीरथ करा लाए।’’
उनका दिल बैठ गया। शंभू ने तो पहले ही बता दिया था कि अगले माह उसके प्रमोशन की इन्टरव्यू है। वह किसी सूरत में उनके साथ नहीं चल पाएगा। सुझाव दिया था कि तीर्थ यात्रा कम्पनी की किसी बस में चले जाओ कोई समस्या नहीं होगी। वे लोग सब इन्तजाम कर लेंगे। फिर फ़लसफ़ा था कि भगवान तो दसों दिशाओं में एक से हैं। वहीं पूजा–पाठ कर शान्तिपूर्वक जीवन बिताओ। यात्राओं में सिवा तकलीफ़ के क्या है?

 
 
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